Monday, January 18, 2010

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" जिन जख्मो को वक़्त भर चला है .......तुम उनको क्यों छेड़े जा रहे हो.........."
आज फिर यादों की शाखों से कुछ पत्ते हलके से गिर रहे हैं। इनकी सरसराहट धीमी हैं पर शायद सन्नाटे में नज़रंदाज़ किया नहीं जा सका । होता हैं ऐसा अक्सर की अगर जान भी लो की ये बेरुखी .....ये वीरानी हमेशा यूँ ही नहीं रहेगी ....लेकिन.... दिल को कौन समझाए ?ये तो बस बहाती चली जाती हैं अपनी भावनावो के सागर।
सोचती हैं ...काश होता ऐसा की ये पत्ते उन जड़ों की तरह होते जो जीवन की कलियाँ और टहनिया खिलाती ....फैलाती है।नकारते नहीं हम इसे, की इनकी हरियाली ने दो टुक छाव दी थी ,कभी धुप में ।होगी वही सुकून की सांस जो अब भी ढूंढते हैं हम बेवज़ह । कभी खुद से नाराज़ भी हो लेते हैं, ये सोच कर की क्यूँ नहीं रोका ....मना ....बहला .....फुसलाकर.... ???!!!पर ये तो ऋतू के इशारे पर थे ,इशारा हुआ और हमें तनहा कर चल दिए।
हाँ मगर इस सूखे उजड़े पत्ते पर छोड़ गए वो अपना रंग.....बंजर ही सही। खानाबदोश इन पत्तों को चले हम दिल की किताब में छुपाकर.....यादों के जंगल गूंज रहे हैं.....अब हमे चलते जाना हैं।

रेखाओं का खेल है मुक्कदर .................रेखाओं से मात खा रहे हो । तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो........